राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस की सीधी चुनावी लड़ाई में छोटे  दलों की और बागियों की क्या रहेगी भूमिका ?

राजस्थान में 25 नवंबर को विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग होनी है।  प्रदेश में भाजपा  और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है।  ऐसे में दोनों ही पार्टियां जीत के लिए पूरी ताकत झोंक रही हैं।  भाजपा  जहां सत्ता में वापसी के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है, वहीं कांग्रेस दोबारा सत्ता पाने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है।  कुछ सीटों पर जहां कांग्रेस और भाजपा  के बीच सीधी टक्कर है, तो वहीं कुछ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय होने के आसार नजर आ रहे हैं।  

भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयता और जातीय अस्मिता के नाम पर तमाम छोटी-छोटी पार्टियां उपजी हैं।  नब्बे के दशक में ये छोटी पार्टियां सरकार गिराने और बनाने में बड़ी भूमिका निभाती रही हैं तो पिछले विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश और राजस्थान में किसी भी एक दल को बहुमत नहीं मिला था, जिसके बाद कांग्रेस ने सपा और बसपा के समर्थन से सरकार बनाई थी।  इस बार जिस तरह से कांग्रेस और भाजपा  के बीच कांटे की टक्कर दिख रही है, उसके चलते चुनावी मैदान में उतरी छोटी और क्षेत्रीय पार्टियां किंगमेकर बनने का सपना संजोय हुए हैं।  ऐसे में देखना है कि राजस्थान  में कौन सी क्षेत्रीय पार्टी कितनी सीटों पर किस्मत आजमा रही है और किसकी चिंता बढ़ा रही है।

दरअसल देखा जाय तो राजस्थान की सियासत कांग्रेस और भाजपा  के बीच सिमटी हुई है।  इन्हीं दोनों दलों के बीच सत्ता परिवर्तन होता रहा और इस बार का विधानसभा चुनाव भी इनके बीच है, लेकिन जिस तरह से कांटे का मुकाबला माना जा रहा है, उसमें क्षेत्रीय दलों की भूमिका अहम रहने वाली है।  राजस्थान में कांग्रेस  और भाजपा  सभी  200 सीटों पर चुनावी मैदान में उतरी है।  कांग्रेस और भाजपा  से जिन उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिल सका है, उनमें से कई नेता क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों से टिकट लेकर ताल ठोक रहे हैं।

राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा  के बाद सभी 200 सीटों पर बसपा ने अपने कैंडिडेट उतारे हैं।  आम आदमी पार्टी राजस्थान की 88 सीटों पर चुनाव लड़ रही है जबकि सांसद हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी ने 83 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं।  बीटीपी 12 और बीएपी 21, सीपीएम 17 और आरएलडी एक सीट पर चुनावी मैदान में हैं।  इसके अलावा अजय चौटाला की जेजेपी भी चुनावी किस्मत आजमा रही है। प्रदेश में बसपा का दलित और आरएलपी का जाट समुदाय के बीच अपना सियासी आधार है, जिसके चलते उन्हें इग्नोर करना मुश्किल है।  2018 में आरएलपी 3 सीटों के साथ ढाई फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही तो बसपा ने 6 सीटों के साथ 4 फीसदी वोट हासिल किया था।  सीपीआई एक सीट और बीटीपी 2 सीटें जीतने में रही थी।

बसपा का सियासी भरतपुर, धौलपुर, करौली, दौसा और अलवर जैसे जैसे क्षेत्र में तो नागौर और शेखावटी के इलाके में हनुमान बेनीवाल का गढ़ माना जाता है।  सीपीआई का सियासी प्रभाव शेखावटी के नहरी क्षेत्र में है तो बीटीपी और बीएपी आदिवासी बेल्ट में प्रभाव रखते हैं।  यही वजह है कि बसपा 20, आरएलपी 15, आम आदमी पार्टी 3 और बीटीपी और बीएपी ने 5-5 सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला बना दिया है।  इस तरह से करीब दो दर्जन सीटों पर तीन दलों के बीच लड़ाई मानी जा रही है।

गौरतलब है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में  बसपा, आरएलपी, बीटीपी, पीसीएम और आरएलडी के प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे।  तो राजस्थान की 14 सीटों पर जीत दर्ज कराई  थी।  ऐसे में इस बार भी छोटी पार्टियों भाजपा, कांग्रेस को बड़ी चुनौती दे रही है।  ऐसे में  यह भी देखने वाली बात है  कि जनता इस बार भाजपा कांग्रेस अलावा किस पार्टी को ज्यादा पसंद करती है।  राजस्थान में चल रहे चुनाव में छोटी पार्टियां त्रिकोणीय मुकाबला बना रही हैं और कुछ सीटों पर सीधे टक्कर दे रहे हैं।  बहुजन समाज पार्टी  का पूर्वी राजस्थान में दबदबा है, तो आरएलपी का पश्चिमी राजस्थान और शेखावाटी में दबदबा है।  दक्षिण राजस्थान में बीटीपी कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला बना रही है।  दिल्ली और पंजाब में सरकार बनने के बाद आम आदमी पार्टी ने भी राजस्थान चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारे हैं।  राजस्थान के चुनाव में 12 नए दल चुनाव लड़ रहे हैं।  इस बार छोटे-बड़े कुल 58 राजनीतिक दल चुनाव मैदान में उतरे हैं।  ऐसे में राजनीतिक दलों और निर्दलियों को मिलाकर 199 विधानसभा सीटों पर कुल 1862 प्रत्याशी चुनाव मैदान में है।  

छोटे दलों व बागियों के अलावा  निर्दलीय ने 730 नामांकन पत्र दाखिल किए हैं।  2018 में छोटे राजनीतिक दलों ने भाजपा, कांग्रेस के 15 प्रत्याशियों की जमानत जब्त कराई थी।  जिसमें भाजपा के तीन कांग्रेस में 12 प्रत्याशी थे।  जबकि छोटे राजनीतिक दलों के 90 फीसदी से ज्यादा कैंडिडेट अपनी जमानत नहीं बचा पाए थे।  इसके बाद भी राजनीतिक दल राजस्थान के चुनाव में खासा सक्रिय हैं और कई सीटों पर छोटे राजनीतिक दलों के चलते त्रिकोणीय मुकाबला बन गया है।  2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा, आरएलपी, बीटीपी और आरएलडी के प्रत्याशी ने चुनाव लड़ा था और बड़े दलों को छोटे दलों के प्रत्याशियों ने  कड़ी टक्कर दी थी।  ऐसे में इस बार भी कांग्रेस भाजपा  को खास डर सता रहा है।   

माना जा रहा है कि भाजपा  की करीब 70, तो कांग्रेस की 50 सीटें पक्की हैं। बाकी 79 (एक उम्मीदवार की मौत होने की वजह से 200 की जगह 199 सीटों पर ही चुनाव हो रहा है) सीटें फंसी हैं। भाजपा  को 22 तो कांग्रेस को 17 बागियों से निपटना पड़ रहा है। भाजपा  के 10-12 बागी मजबूत माने जा रहे हैं तो कांग्रेस के भी 8 से 10 बागी पटखनी देने की क्षमता रखते हैं। दिलचस्प है कि कांग्रेस के अशोक गहलोत हों या भाजपा  की वसुंधरा राजे, दोनों ही मजबूत बागियों के यहां चुनाव प्रचार के लिए नहीं गए हैं। माना जा रहा है कि दोनों चाहते हैं, उनकी पार्टी 95-96 सीटों पर अटक जाए, ताकि अपने जीते हुए बागियों के सशर्त समर्थन से आलाकमान पर दबाव बनाकर सीएम बनने का रास्ता तैयार किया जा सके।

अभी तक के बागियों का गणित देखा जाय तो 79 सीटों में से 68 पर त्रिकोणीय मुकाबला है जबकि बाकी पर चार-चार उम्मीदवार मैदान में हैं। पिछली बार कुल 40 सीटों पर पांच हजार से कम अंतर से जीत-हार हुई थी।पिछले पांच बार के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो कांग्रेस और भाजपा  को लगभग 80 फीसदी वोट मिलते आए हैं। बाकी 20 फीसदी वोट बागियों, छोटे दलों और निर्दलीयों के बीच बंटते रहे हैं।इस फैक्टर ने ही इस बार मुकाबले को कांटे का बना दिया है क्योंकि सर्वे बता रहे हैं कि दोनों दल 85 से 87 फीसदी वोट पा सकते हैं।बाकी बचे 13 से 15 फीसदी वोट छोटे दलों और बागियों के बीच बंटने का मतलब है उन्हें पिछली बार से 5 से 7 फीसदी कम वोट मिलना। ऐसा होता है तो कम अंतर से लगभग 50 सीटें हारी-जीती जाएंगी।उधर, हनुमान बेनीवाल की RLP ने चंद्रशेखर रावण की पार्टी के साथ समझौता कर जाट-दलित समीकरण के जरिए पश्चिमी राजस्थान में करीब एक दर्जन सीटों पर भाजपा -कांग्रेस को मुश्किल में डाल रखा है।मायावती ने यूपी से सटे पूर्वी राजस्थान में जोर लगाया है और कम से कम छह सीटों पर कांग्रेस और भाजपा  को कड़ी टक्कर दे रही हैं ।दक्षिण के आदिवासी इलाकों में भारतीय ट्राइबल पार्टी और भारतीय आदिवासी पार्टी चार सीटों पर कांग्रेस और भाजपा  के लिए सिरदर्द बनी हुई है।पिछली बार कांग्रेस को भाजपा  से सिर्फ 0 .54 फीसदी वोट ज्यादा मिला था, लिहाजा इन छोटे दलों की मारक क्षमता से होने वाले नुकसान को समझा जा सकता है।

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