New Delhi:- एनसीईआरटी का सार्थक कदम

एनसीईआरटी ने एक बार फिर अपने पाठयक्रम में बदलाव किया है। एनसीईआरटी द्वारा अपनी किताबों में देश का नाम इंडिया को जगह भारत लिखने की सिफारिश की है। एनसीईआरटी पैनल के सभी एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों में इंडिया को भारत से बदलने के प्रस्ताव को इसके सदस्यों से सर्वसम्मति से मंजूरी मिल गई है।

समय-समय पर राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद यानी एनसीईआरटी अपने पाठयक्रम में बदलाव करती रही है। जिसके कारण एनसीईआरटी पर कई बार सवाल भी खड़े होते रहे हैं। एनसीईआरटी ने एक बार फिर अपने पाठयक्रम में बदलाव किया है। एनसीईआरटी द्वारा अपनी किताबों में देश का नाम इंडिया को जगह भारत लिखने की सिफारिश की है। एनसीईआरटी पैनल के सभी एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों में इंडिया को भारत से बदलने के प्रस्ताव को इसके सदस्यों से सर्वसम्मति से मंजूरी मिल गई है। ऐसे में जल्द ही एनसीईआरटी कि किताबों में इंडिया की जगह भारत लिखा नजर आ सकता है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इंडिया के अलावा एंशिएंट हिस्ट्री की जगह किताबों में क्लासिकल हिस्ट्री को भी शामिल किए जाने की संभावनाएं हैं। साथ ही समिति ने हिंदू योद्धाओं की बीरगाथाओं को भी किताब का हिस्सा बनाने का सुझाव दिया है। वास्तव में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत पाठ्यक्रम में विषयों के नाम बदलने की प्रक्रिया चल रही है। विशेषज्ञों के साथ ही राज्यों से भी इस बारे में राय ली गई है जिनमें से कुछ ने बदलाव के प्रति असहमति व्यक्त की है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार जैसी घटनाओं को पाठ्यक्रम में रखे जाने की पिछली सरकार की सिफारिश वापस ले ली। वहीं अनेक गैर भाजपा शासित राज्य सरकारें अंधविश्वास से बचने की पक्षधर हैं तो कुछ संतुलन बनाए रखने की हिमायती हैं।

एनसीईआरटी पैनल की सिफारिश उस वक्त की गई है, जब सियासी हलको में इंडिया नाम को बदलकर भारत रखने पर राजनीतिक चर्चाएं जोरों पर हैं। इंडिया से बदलकर भारत नाम रखे जाने की सुगबुगाहट बीते महीने सितंबर में तब शुरू हुई जब जी20 के आयोजन के दौरान भारत की राष्ट्रपति के नाम से भेजे गए निमंत्रण पत्र में ‘प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ की बजाए ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ लिखा गया था।

एनसीईआरटी के इस कदम से देष में फिर एक बार इंडिया बनाम भारत का विमर्ष षुरू हो गया है। एक वर्ग इस बहस को औचित्यहीन मानता है तो वहीं दूसरा तबका इस कदम का स्वागत कर रहा है। इस पक्ष का यह कहना है कि यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। पूर्व की सरकारें ऐसा नहीं कर पाई बीजेपी की सरकार ने इसे करने का बीड़ा उठाया है। एनसीईआरटी के निर्णय का स्वागत और समर्थन करने वालों का यह भी कहना है कि इंडिया और भारत से किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए संविधान में दोनों शब्दों का इस्तेमाल किया गया है लेकिन ब्रिटिशों द्वारा दिया गया नाम अगर बदल गया है तो इसमें किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। इंडिया की जगह भारत बहुत पहले कर देना चाहिए था लेकिन यह नहीं हुआ अब हुआ है इसका इसलिए हम स्वागत करते हैं।।

इसमें दो राय नहीं हैं कि पाठ्यक्रम की वस्तु का धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने जमकर सत्यानाश किया। दूसरा नुकसान अंग्रेजियत में डूबे तबके के हाथों हुआ। दुर्भाग्य से आजादी के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा के चुनिन्दा लोग शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में घुस आए जिन्हें जवाहर लाल नेहरू ने प्रोत्साहित किया जो खुद सोवियत संघ की साम्यवादी क्रांति से प्रभावित थे। इसके अलावा विदेशों में शिक्षित लोग शिक्षा-शास्त्री बनकर सिस्टम में बैठ गए और ज्ञान विज्ञान का सारा श्रेय पश्चिम को देते हुए अंग्रेजी को प्रगतिशीलता की निशानी बना दिया। इस वजह से भारत के इतिहास, पौराणिक ग्रंथों, महानायकों और उपलब्धियों पर उपेक्षा की धूल डाली जाती रही।
भारत के महान साहित्यकारों, कलाकारों और उनकी कलाओं को नजरंदाज किया जाने लगा। देश के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाने वाले महाराणा प्रताप की बजाय अकबर को महान बताया जाने लगा। गुलाम मानसिकता के प्रतीक चिन्ह मार्ग देश की राजधानी में बाबर हुमायूँ औरंगजेब के नाम पर बनाए गए। प्रशासन में भी भारतीय संस्कृति को पिछड़ेपन से जोड़कर देखने वाले कथित आधुनिक भर गए। वर्तमान दुर्दशा की सबसे बडी वजह  षिक्षा व्यवस्था और पाठयक्रम ही है जिसने हमारे इतिहास और संस्कृति के गौरवशाली पक्ष पर परदा डालते हुए निराशाजनक पहलुओं को उभारने का प्रयास किया।

सल 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद नई शिक्षा नीति पर काम शुरू हुआ और अब जाकर पाठ्यक्रम में सकारात्मक बदलाव और सुधार किए जाने की प्रक्रिया प्रारंभ होने जा रही है। प्राचीन ग्रंथों पर तमेमंतबी ूवता को यदि प्रोत्साहन और संरक्षण दिया गया होता तो युवा पीढ़ी को पश्चिम से प्रभावित होने से रोका जा सकता था। लेकिन ब्रेन ड्रेन  का जो सिलसिला आजादी के बाद शुरू हुआ उसे रोकने के लिए सार्थक प्रयास कभी हुए ही नहीं क्योंकि हमारे नीति नियंता भारतीयता को लेकर हीन भावना से ग्रसित रहे। उस दृष्टि से एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम और पुस्तकों का भारतीयकरण किया जाना 21 वीं सदी को भारत के नाम लिखने के लिए बहुत  जरूरी है।

हजारों साल पहले भारत में विज्ञान और तकनीक का जो विकास हुआ वह उन मंदिरों में देखा जा सकता है जिनकी अभी तक उपेक्षा होती रही। आजकल भारत की प्राचीन स्थापत्य और वास्तु कला के सैकड़ों ऐसे स्मारकों की जानकारी आ रही है जिनके सामने ताजमहल तुच्छ है। उनके निर्माण में जिस इन्जीनियरिंग कौशल और  खगोलीय ज्ञान का उपयोग किया गया उसे देखकर पश्चिम के वैज्ञानिक भौचक रह जाते हैं किंतु हमारे देश में मुगल इतिहास और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित शिक्षा शास्त्रियों को वह सब महत्वहीन प्रतीत होता है।

हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन प्रसंगों का विवरण है उनका समुचित अध्ययन कर ईमानदारी से तमेमंतबी की जाए तो ये साबित किया जा सकता है कि आज पश्चिम जिन बातों के आधार पर  खुद को श्रेष्ठ समझता है वे सब भारतीय ज्ञान परंपरा का अभिन्न अंग रहीं। लेकिन कालांतर में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण राष्ट्र के व्यापक हितों को उपेक्षित किए जाने से हमारी सीमाएं असुरक्षित हुई जिससे विदेशी लुटेरों के हमले होने लगे जो भारत की संपन्नता के किस्से सुनकर लूटपाट करने आते और लौट जाते। धीरे- धीरे उन्हें लगा कि यहां के शासक संकीर्ण मानसिकता के शिकार हैं जिसने उनको बार-बार आने के अवसर दिए।अंततः वे यहां राज करने के इरादे पाल बैठे जिससे सैकड़ों वर्षों के लिए गुलामी ने हमें जकड़ लिया। उसी का दुष्परिणाम प्राचीन ज्ञान विज्ञान, कला और संस्कृति पर विदेशी प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।

सन् 1193 में बख्तियार खिलजी नामक एक मुस्लिम आक्रांता ने नालंदा के पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया ताकि हमारी समूची ज्ञान संपदा भस्म हो जाए। इसी तरह मुस्लिम शासकों ने ऐतिहासिक मंदिरों एवं सांस्कृतिक केंद्रों को ध्वस्त किया जिससे भारत को धार्मिक सांस्कृतिक जड़ें नष्ट हो जाएं। अंग्रेजों ने तोड़ फोड़ तो नहीं की किंतु हमारे अभिजात्य वर्ग में भारतीयता के प्रति हीन भावना का बीजारोपण जरूर कर दिया जिसका असर अभी भी स्पष्ट नजर आता है। देश का वह वर्ग जो अंग्रेजी के चार अक्षर भी लिख पढ़ नहीं सकता वह भी अंग्रेजियत से जुड़ने की कोशिश करता है। इससे जो नुकसान हुआ उसका आकलन करना बेहद कठिन है किंतु समय आ गया है जब शिक्षा, कला, साहित्य और संस्कृति का भारतीयकरण किया जाए। एनसीईआरटी द्वारा इस दिशा में शुरू किए गए प्रयास को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए क्योंकि इसका उद्देश्य भावी पीढ़ी के मन में भारतीयता के प्रति आदर का भाव उत्पन्न करना है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एनसीईआरटी द्वारा अपनी किताबों में देश का नाम इंडिया को जगह भारत लिखने की सिफारिश एक सार्थक कदम है।

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