जरुरी नहीं की फटाको से ही दीवाली हो , हमें बुजुर्गों व पर्यावरण   का भी ध्यान रखना होगा

जल्द ही इस  माह दिवाली 12 तारीख को आने वाली है । दिवाली के आने की  आहट के साथ याद आने लगती है  बचपन में पढ़ी कविता की ये पंक्तियाँ जो  आज भी मस्तिष्क के किसी कोने में बैठी है। दिवाली दीये और प्रकाश का पर्व है और प्रकाश आनंद का प्रतीक है । दीपावली का त्यौहार वातावरण को खुशियों से भर देता है । भारत के ज्यादातर त्योहारों की तरह यह त्यौहार भी कृषि एवं मौसम से जुड़ा है । धान की बालियाँ पक जाती हैं। नए धान की महक किसान को उमंग से भर देती है। किसान ख़ुशी से झूम रहे होते हैं । वर्षा की विदाई हो चुकी होती है एवं मौसम में गुलाबी ठंड व्याप्त होने लगती है । ऐसे में घरों में प्रज्‍ज्‍वलित दीप मालाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि धरती ने रौशनी का श्रृंगार किया हो । जैसे किसी नव ब्याहता के मांग का टीका उसके सौन्दर्य को निखार देता है, ठीक वैसे ही शरद ऋतु में दीपों का प्रकाश, वर्षा ऋतु के उपरांत धुली हुई धरती के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है ।मान्यता के अनुसार भगवान राम चौदह वर्ष के वनवास के उपरान्त जब अयोध्या लौटे, तो उनके आगमन की ख़ुशी में अयोध्या नगर के वासियों ने घी के दीये जलाये। घी के दीये जलाने का अर्थ वैसे भी ख़ुशी मानना होता है । दीप जलाना अपनी ख़ुशी को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है । दिवाली पर दीये जलाने का एक लाभ यह भी है कि वर्षा ऋतु के मध्य उत्पन्न तरह-तरह के कीड़े मकोड़े दीये की रौशनी से आकर्षित होते हैं एवं मर जाते हैं। इसके साथ ही दीपावली जुड़े साफ़-सफाई के महत्व को तो सभी जानते ही हैं ।ऐसे में प्रश्न उत्पन्न होता है कि दीये जलाकर आनंद उत्सव मनाने की बात तो हम सबको ज्ञात है, लेकिन ये पटाखे हमारी परंपरा में कब और कैसे प्रवेश कर गए । पटाखे बारूद से बनते हैं यानी कि बारूद, दिवाली से जुड़ी धार्मिक मान्यता एवं परंपरा का हिस्सा प्रारंभ से नहीं था। दिवाली में पटाखा चलाने की पहले कोई परंपरा नहीं थी। लेकिन आज दीपावली के अवसर पर इतने पटाखे फोड़े जाते हैं, मानो दीपावली दीये जलाने का नहीं, बल्कि पटाखे फोड़ने का पर्व है ।

जब चारों तरफ दीये जल रहे हों, तो उसे देखना एक आनंददायक अनुभव होता है, जो दीये जलाता है उसके लिए भी और जो देखता है उसके लिए भी । लेकिन पटाखों के साथ ऐसा नहीं होता है । पटाखा चलाना एक राक्षसी प्रवृत्ति है । यह पटाखा चलाने वालों को तो क्षणिक आनंद देता है, परन्तु अन्य सभी को इससे परेशानी होती है। सामान्य मूक जानवर भी पटाखों के शोर एवं उससे उत्पन्न प्रदूषण से परेशान हो जाते हैं । यहाँ तक कि पेड़ पौधों पर भी पटाखों से उत्पन्न प्रदूषण का प्रतिकूल असर पड़ता है । बुजुर्गों एवं बीमार व्यक्ति की यंत्रणा की तो सहज कल्प्पना की जा सकती है प टाखों से किसी का लाभ नहीं होता है । हम अक्सर सुनते रहते हैं कि पटाखा फैक्टरियों में बाल मजदूरों से काम लिया जाता है एवं उनका शोषण होता है।  दिवाली के दिन पटाखों के कारण होने वाले प्रदूषण का स्तर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में इतना बढ़ जाता है कि कई लोगों को सांस सम्बन्धी परेशानियाँ होने लगती है। दिवाली की रात में पिछले वर्ष PM 2 का स्तर 1200 को पार कर गया था, जो सामान्य से बहुत अधिक है ।हम स्वच्छता की बात करते हैं। सड़क की गन्दगी तो साफ़ की जा सकती है, हवा भी कुछ दिनों में साफ़ हो सकती है, पर जो प्रदूषण जनित जहरीले पदार्थ हमारे फेफड़ों में जमा हो जाते हैं, उसे हम किसी भी तरह से साफ़ नहीं कर सकते । इस प्रकार हम देखते हैं कि पटाखों से अनेक प्रकार के नुकसान हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह की नुकसानदायक परंपरा हमारे पर्व का हिस्सा बन रही है  ।जबकि हमारे सभी पर्व त्योहारों में शामिल प्राचीन परम्पराओं में कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार अवश्य देखने को मिलते हैं ।हमारे पर्व त्यौहार खुशियाँ बांटने के अवसर हैं । किसी को दुःख पहुंचाकर खुशियाँ मनाना, यह हमारी धर्म एवं संस्कृति का हिस्सा नहीं है। यह तो इसके विपरीत अधर्म और अपसंस्कृति है । पटाखों में किये जाने वाले खर्च को बचाकर अगर किसी गरीब के घर में मिठाई पहुंचा दी जाए या उनके लिए दीये और तेल का प्रबंध कर दिया जाए, तो ऐसा करने वालों पर लक्ष्मी की अधिक कृपा होगी ।

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाई हुई है व साथ ही प्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस धारणा को दूर किया है कि पटाखों पर उसके द्वारा लगाई गई रोक किसी समुदाय या किसी विशेष के खिलाफ है। शीर्ष अदालत ने यह सख्त टिप्पणी भी की है कि आनंद की आड़ में वह नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन की इजाजत नहीं दे सकता। पटाखों पर रोक व्यापक जनहित में है जबकि एक विशेष तरह की धारणा बनाई जा रही है। इसे इस तरह से नहीं दिखाया जाना चाहिए कि यह रोक किसी विशेष उद्देश्य के लिए लगाई गई है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उसने पटाखों पर सौ प्रतिशत रोक नहीं लगाई है। हरित पटाखे बेचे जा सकते हैं। जब भी दीपावली पर पटाखों पर प्रतिबंध की चर्चा होती है कुछ लोग कहने लगते हैं कि सारे प्रतिबंध हिन्दुओं पर ही लगाए जाते हैं, यह हिन्दू संस्कृति पर हमला है। होली के समय यह कहा जाता है कि इस त्यौहार में पानी की बहुत बर्बादी होती है जबकि बकरीद पर कोई नहीं बोलता, जब लाखों जानवरों को मौत के घाट उतारा जाता है। अन्य धर्म के संबंध में ऐसी ही बातें कही जाती हैं। लोगों के सारे सवाल सही हैं लेकिन कोरोना महामारी, वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य की चिंता को धार्मिक रंग देना उचित नहीं है। देश  की हवा वैसे भी विषाक्त हो चुकी है। हर वर्ष दीपावली के दिनों में  महानगरों  की हवा बद से बदतर हो जाती है। महानगर एक गैस चैम्बर में तब्दील हो जाता है। यह सही है कि भारत उत्सवों का देश है। हंसी खुशी के वातावरण में हम उत्सवों के मर्म को भूल जाते हैं। दीपावली का दीया तो अमीर-गरीब, बड़े-छोटे सबको एक ही प्रकाश देगा। उत्सव का एक ही मर्म है कि मन की दीवारों को फांद कर एक-दूसरे को गले लगाना। उत्सव ही हमें साम्प्रदायिक भेदभाव भुलाने के लिए प्रेरित करते हैं। यही मर्म के लापता होने से समाज खंड-खंड में बंटा नजर आता है। आज उत्सवों पर बाजार और उसका लेखा-जोखा हावी है। उत्सवों का एक विस्तृत समाज शास्त्र है जो हमें विविधता में एकता का संदेश देता है

दिवाली के दिन हम माँ लक्ष्मी की पूजा भी करते हैं एवं उनसे अपने लिए धन, धान्य एवं समृद्धि की कामना करते हैं । परन्तु इतने शोर-शराबे एवं प्रदूषण के मध्य हम क्या लक्ष्मी जी की कृपा के पात्र हो सकते हैं? आज का हमारा समाज एक जागरूक समाज है, जो अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक है । खासकर युवा वर्ग नए एवं स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु अत्यंत सचेत है । ऐसे में आइये हम सब मिलकर ऐसा प्रयत्न करें कि इस धार्मिक पर्व में अनावश्यक रूप से शामिल हो गयी इस कुत्सित परम्परा रूपी राक्षस का हम अंत कर दें एवं हम सब मिलकर लक्ष्मी जी से यह प्रार्थना करें कि हे माँ! इस देश में कोई गरीब ना रहे, कोई भूखा न रहे ।दीपावली का मतलब होता है दीपों की लड़ी जो घी या तेल से जलाई जाती हैं। इसका मतलब बारूद भरे पटाखे बिल्कुल नहीं होता। ये रोशनी का पर्व है। यह शोर, धमाके और धुएं का पर्व नहीं है। पटाखे जलाना भारत की परम्परा नहीं रही है। रावण का वध करने के बाद जब भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे तो नगरवासियों ने पूरे मार्ग में दीये जलाकर अयोध्या को रोशन कर दिया था। ये दीये अधर्म पर धर्म की जीत के प्रतीक के रूप में जलाए गए थे। अंधेरे पर उजाले की जीत के रूप में जलाए गए थे। सिख इस दिन को बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाते हैं, इस दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने जहांगीर के चंगुल से खुद को बचा लिया था और स्वर्ण मंदिर पहुंचे थे। इस मौके पर स्वर्ण मंदिर को रोशनी से सजाया जाता है। जैन धर्म के अनुयाई महावीर को याद करके ये पर्व मनाते हैं। अमावस्या के दिन ही महावीर को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। 

कुछ लोगों का मानना है   कि बारूद का अविष्कार भारत में नहीं हुआ एवं बारूद सर्वप्रथम मुग़ल आक्रान्ता बाबर के द्वारा भारत की भूमि पर प्रयोग किया गया । कुछ लोगों का मानना है  पटाखों का आविष्कार एक दुर्घटना के कारण चीन में हुआ था। 1040 में पटाखों का पहला प्रमाण मिलता है। यूरोप में पटाखों का चलन सबसे पहले 1258 में हुआ था। यहां सबसे पहले पटाखों का उत्पादन इटली में किया था। इसके बाद 14वीं शताब्दी में तो यूरोप के सभी देशों में बम बनाने का काम शुरू कर दिया था। भारत में उत्सवों के दौरान आतिशबाजी का चलन तो अंग्रेजों के शासनकाल में शुरू हुआ, परन्तु बारूद के धमाके इससे पहले शुरू हो गए थे।  मुगलों ने जब भारत पर हमला किया तो वो अपने साथ बारूद से वो बम बनाते थे अैर भारतीय सेनाओं पर हमले करते थे। बाद में मुगल और कुछ भारतीय राजा जश्न मनाने के लिए घातक बारूद से धमाके करने लगे थे। उन दिनों बम या बंदूक से फायर करना रसूखदारों के जश्न में शामिल हुआ। बाद में इसे परम्परा बना दिया गया। इतिहास गवाह है कि 8 अप्रैल, 1669 को पहली बार औरंगजेब के आदेश से पटाखों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया। इस प्रतिबंध के क्रियान्वयन का बीकानेर के पूर्व राजा महाराजा गंगा सिंह ने समर्थन किया था और एक एक्ट का मसौदा तैयार किया था, जिसमें उत्सव के लिए पटाखों का इस्तेमाल न करने के लिए कहा गया क्योंकि यह पर्यावरण और सम्पत्ति दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

अब मुश्किल यह है कि लोगों ने दीपावली पर पटाखे जलाना ही पर्व का प्रतीक बना लिया है। कुछ लोग आतिशबाजी को ही लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने का जरिया मानने लगे हैं। लोगों को यह समझना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन हो चुका है। पर्यावरण को हम बहुत नुक्सान पहुंचा चुके हैं। अब यह लोगों पर निर्भर करता है कि वह पटाखे जलाने को धार्मिक रंग देकर जानबूझ कर जहर की सांस लेना चाहते हैं, क्या वे भावी पीढ़ी को सांस लेने लायक हवा देना चाहते हैं तो जहरीली हवा लेना देना चाहते हैं। दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों के फेफड़े गुलाबी होने की बजाय काले नजर आते हैं। प्रदूषण से सबके शरीर खोखले हो रहे हैं। प्रदूषण में महामारी का वायरस तेजी से फैलता है, इसलिए लोगों को समझदारी से काम लेना होगा।

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