Women Vs Society: “मै कलयुग की द्रौपदी हूँ, लाज बचाने श्री कृष्णा को नहीं बुलाऊंगी…”
Women Vs Society: वर्षों से एक चित्र खड़ा है, विष्णु और लक्ष्मी का, पैर दबाती पत्नी और देखो आराम पति का। भले ही सुनीता विलियम्स इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर हो…वहां से वापसी की राह तलाशी जा रही हो…मगर हमारे घर की बेटियों के लिए क्या बदला….न्यू जनरेशन के माँ-बाप ये जरूर चाहते है….कि उनकी बेटियां भी घर जी चाहर दीवारी से निकले और चाँद को छू ले पर पहले घर पड़े बर्तनो को खंगाल कर जाएँ…
हमें तो बचपन से ही समझदार बना दिया गया था “माना हमे खेलने के खिलौने दिए मगर किचन के भगोने दिए”
ऊँची उड़ान भरने के आषीर्वाद जिन्होंने दिए , है देर से आने पर हर चीज की पाबंदियों के ताने भी उन्हीने दिए “.
यह समाज जितना भी लड़कियों के सफल होने, निडर होने, बेबाक होने को चाहे जैसे मुद्दे बनाये पर असल में उनको बेटियां घर में तहजीब में ही चाहिए। बुरखा,घूँघट सब महिला पर , पर्दा करे हमी हम, वो भी बस इसीलिए कि मर्दो से मन पर न होता संयम।
तभी लड़को के मुकाबले आज भी बेटियों पर घर की जिम्मेमदारी ज्यादा है…आज भी उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ अपने छोटे भाई-बहनो का ख्याल रखना है…खाना बनाने से लेकर घर की साफ-सफाई तक में…उन्हें अपनी माँ का साथ निभाना है…साथ ही उन पर घर के लड़को से ज्यादा खुद को प्रूव करने का प्रेशर है…माना दुनिया चाहे जितनी बदल जाए….लड़के और लड़कियों के बीच फर्क जस का तस है। समाज न तब बदला था और न आज बदला है…लड़कियों के लिए आज भी दायरे और दहलीज तय है….उन्हें पहले भी कैद करने की कोशिश होती रही और आज भी उनके लिए कायदे-कानून तय है…माँ-बाप अपनी बेटियों के लिए सपने तो संजोते है…मगर उनसे उम्मीदें इतनी है कि बिटिया घर का नाम रौशन तो कर ले…मगर पहले चौका-चूल्हा करना सीख ले….
लोग कहते है कि क्यू इसका शिकार बनी नारी
क्यों की नारी पर ही सौंपी लज्जा की सारी जिम्मेवारी
रही बात समाज की तो उसे भी बेटियों का बाहर निकलना नहीं भाता…..लड़की अगर घर की चौखट से निकली तो गिद्ध जैसी निगाहो को वो चुभने लगती है…अगर वो किसी से बात भर कर ले…या देख भी ले….तो उसके बारे में न जाने कौन-कौन सी बातें बनना शुरू हो जाती है…वही लड़के दिन भर अय्याशी करके भी घर लौटे तो…माँ-बाप के लिए राजा बेटा ही बना रहता है….मगर एक लड़की से हर सवाल के जवाब की उम्मीद की जाती है…एक बाप से ज्यादा ज्यादा लड़की को माँ का सामना करना पड़ता है…इसके पीछे सायकोलॉजिकल वजह भी है कि…एक लड़की की माँ अपनी बेटी में हमेशा खुद को तलाशती है…और कोशिश करती है कि उसे जो जमाने भर के ताने सुनने पड़े….उसकी बेटी उनसे महफूज रहे।
वर्षो से जो बंद पड़े है उन नैनो को खोलो
नारी आओ बोलो, नारी आओ बोलो
सोचिए कि अगर आप सीढिया चढ़ रहे है और आप पर बोझ लगातार बढ़ रहा है तो आप कितनी ही ऊंचाई पर पहुंच पाएंगे …. ऐसा ही असल जिंदगी में है। अगर हम अपनी बेटियों के सपने साकार करना चाहते है तो उन्हें पंख खोलने का मौका भी देना होगा।
घर से, समाज से लड़ के जब बेटियाँ बाहर निकलती है, कुछ हाशिल करने का हौसला बनाती है तभी कुछ मनुष्य रूपी जानवर उनको शिकार बनाकर, नोच नोच कर खा जाते है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ…ये स्लोगन अपनी आप बीती बयां कर रहा हैं… बेटियां घर की चौखट लाँघ कर पढ़ तो लेंगी, मगर उन्हें…उन भूखे भेडियो से भी बचाना हैं, जो घात लगाकर हमारी बेटियों का शिकार करने के लिए खुले घूम रहे हैं। जो बेटी कल, पढ़-लिख कर… न जाने, कितनो की जान बचाती, उसे दरिंदो ने मौका मिलते हीनोच डाला..
“मै कलयुग की द्रौपदी हूँ, लाज बचाने श्री कृष्णा को नहीं बुलाऊंगी
धारण कर अश्त्र शस्त्र मैं खुद ब्रम्हास्त्र चलाउँगी
हुनमान जी की भक्त हूँ ये कहने से कतई नहीं घबराऊँगी
तुम छुवो मेरी पूछ एक बार फिर से मै खड़े-खड़े तुम्हारी लंका फूंक जाऊंगी”
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एक अनुरोध करती हु मै हर लड़की से निर्भर न रहो इस दुनिया पर यह लज्जित लोग क्या तुम्हारी लाज बचायेंगे
उठो खुद क बल पर देवी वरना ये कलयुग है लंका से छुड़वाने श्री राम नहीं आयंगे.