Dehradoon- संविधान मात्र दस्तावेज नहीं, जीवन जीने का माध्यम भी है : भूपेन्द्र कण्डारी

Dehradoon- दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से भारतीय संविधान और संवैधानिक मूल्यों पर गुरुवार की शाम भारतीय संविधान के फिल्म की श्रृंखला के छठवें एपिसोड का प्रदर्शन किया गया। फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने इस धारावाहिक का निर्देशन किया है।

फिल्म प्रदर्शन से पूर्व वक्ता के तौर पर उत्तराखंड पत्रकार संघ के प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र कण्डारी ने कहा कि समाज की संरचना में जो महत्व दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत का है, वही महत्व विकसित समाज की स्थापना में संविधान का है। संविधान केवल दस्तावेज नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक माध्यम है। वर्तमान परिपेक्ष में संविधान की मूल भावना और उसके उद्देश्य को आम लोगों तक ले जाया जाना नितांत आवश्यक है, क्योंकि जब तक ‘गण‘ हमारे संविधान को नहीं समझेगा हमारा लोकतंत्र सिर्फ एक ‘तंत्र‘ बनकर रह जाएगा।

उन्होनें कहा कि हम 1950 से गणतंत्र का उत्सव मनाते हैं। बुनियादी सवाल ये है कि हम गणतंत्र का उत्सव क्यों मनाते हैं सिर्फ इतना ही कि 1950 में 26 जनवरी को भारत का संविधान लागू किया गया था। संविधान क्या है और इसमें ऐसी क्या विशेषताएं जिसका उत्सव मनाया जाए और क्या सिर्फ उत्सव मनाना ही काफी होगा। संविधान सभा प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर के कथन को आज ना कोई याद रखता है और ना ही दोहराता है। उन्होंने कहा था कि ‘संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है बल्कि यह जीवन जीने का एक माध्यम है, लेकिन हकीकत ये है कि संविधान लागू एवं क्रियान्वित होने के 78 वर्षों के बाद भी जीवन जीने का एक माध्यम बनना तो दूर ये आम लोगों तक भी नहीं पहुंच पाया है। कण्डारी ने कहा कि इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि देश की बड़ी आबादी संविधान में निहित प्राविधानों, अवधारणाओं व अधिकारों से परिचित नहीं है। इनमें सिर्फ वह शामिल नहीं हैं, जिन्हें आमतौर अनपढ़ समझा जाता है बल्कि वह लोग भी हैं जो अपने आपको पढ़ा-लिखा व सजग नागरिक मानते हैं। एक तरह से उनकी भी संविधान की साक्षरता न के बराबर कही जा सकती है।

जन संवाद समिति के प्रमुख सतीश धौलाखंडी नेे कार्यक्रम के उद्देश्यों पर जानकारी दी और कहा कि संविधान पर आधारित यह एपिसोड सामान्य जनों के लिए ज्ञानवर्धक हैं। कार्यक्रम के अंत में सफ़दर हाशमी द्वारा लिखित नाटक ‘औरत नाटक’ का मंचन किया गया। कलाकारों ने नाटक के माध्यम से इस बात को मुखरता के साथ दर्शाने का प्रयास किया कि महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे हैं फिर भी पुरुष प्रधान समाज उनकी प्रगति में अवरोध पैदा करता है। मानसिक, शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक क्षमता समृद्ध होने के बाद भी उनकी स्थिति सोचनीय बनी हुई है। नारी चाहे वह बच्ची हो, लड़की हो, पत्नी हो, मां हो, उसे क़दम-क़दम पर शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उसे भाई की तुलना में अधिक काम करना पड़ता है। उसकी पढने-लिखने और आगे बढ़ने की आकांक्षाओं को सीमित किया जाता है। कारखानों में उसे कम वेतन और छंटनी का शिकार होना पड़ता है। ससुराल में दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है। सड़कों पर अपमानित होना पड़ता है। समाज में अमूमन यह ही माना जाता है कि उसका सौंदर्य और यौवन उपभोग के लिए ही है।

नाटक में हिमांशु बिम्सवाल, मेघा, पंकज डंगवाल, गायत्री टम्टा, सुधीर, शेखर, प्रियांशी, संजना, उपासना, अमित, विनीता ऋतुंजय, सैयद इक्देदार अली, सतीश धौलाखंडी, धीरज रावत ने उत्कृष्ट अभिनय किया।

कार्यक्रम के आरम्भ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी ने उपस्थित सभी लोगों का स्वागत किया। कार्यक्रम का संचालन इप्टा के उत्तराखंड अध्यक्ष डॉ. वीके डोभाल ने किया। इस दौरान सुंदर बिष्ट, मनोज कुमार, शोभा शर्मा, अवतार सिंह, साहब नकवी, हर्षमनी भट्ट, राकेश कुमार, कुलभूषण नैथानी, सुधांशु, देवेंद्र कुमार, डॉ. अतुल शर्मा, कांता डंगवाल आदि उपस्थित थे।

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